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Abhay singh Solanki Asi

Abstract

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Abhay singh Solanki Asi

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नई कविता शाद्वल

नई कविता शाद्वल

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बीत गया

दिन सारा

इस मरु को

पार करते करते

थका हूँ

नहीं हारा

आश्वस्त हूँ

की थम गये हैं


लू के थपेड़े

दिखा है एक

शीतल शाद्वल

सांझ ढलते ढलते।


आंधी-तूफानों ने

दी है सौगात

रेत कणों की

जो किरकरा रहे हैं


आखों में दिनभर से

धो लूंगा शाद्वल के

शीतल जल से

तो सो सकूँगा

प्रगाढ़ निंद्रा में

इस मरु की

शांत शीतल

रात में।


दिन सारा

तो बीत गया

इस मरु को

पार करते-करते।


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