सुन्दर का आँगन
सुन्दर का आँगन
समन्दर के आँगन में छपे बालू के बिछोने पर।
नन्हें नन्हे क़दमों के नाज़ुक नाज़ुक निशान।
शोकाकुल हैं लहरें निशानों के धुलने पर।
लहरें उन तक आती हैं जाती हैं होती हैं हैरान।
अब उन तक जा कर हर बार ठिठक जाती हैं।
हम लहरें हैं बेरहम नहीं हैं जैसे होते हैं इंसान।
क्यों धोयें उस नन्ही के निशां जो हमें सहलाती हैं।
और हमारा वजूद ही क्या है आख़िर हम भी तो।
बेटियाँ ही है समन्दर की हर पल बिखर जाती हैं।
