मुखौटा..
मुखौटा..
कौन जाने असली क्या है
और क्या है नकली..?
हर श़ख्स लगाए फिर रहा है मुखौट
संभवतः मैं भी उनमें से एक हूँ
अलग तो नहीं उनसे..!
ये वक़्त वक़्त की बात ही तो है
कहाँ अपनों ध्यान आकर्षित करने को
झूठे आँसू और झूठा गुस्सा दिखाते थे
और अब कोई समझ ना जाए इसलिए
रिश्तों की गली से जब भी होता है गुजरना
अधरों पर मुस्कान की पैबंद लगाए गुजरते हैं..!
नहीं रहती थी कोई फिक्र खान पान की
कुछ इस कदर इतराते फिरते थे ख़ुद ही
लगा रखी है परहेज की लम्बी लम्बी फेहरिस्त
कौन कब व्यंग बाणों से छिलनी कर दे तन मन
ख़ुद को ख़ुद से ही काट कर रखती हूँ..!
पता नहीं चला कब काया कल्प कर बैठे
ख़ुद से की बे'तक्लूफी जानलेवा बन गई
पता नहीं ये आराम का खामियाज़ा है
या फिर...
जो भी हो पहले ख़ुश रहते थे बस
बे'वजह दिखावे को कुछ मुखौटा रखना पड़ता
अब भी रखती हूँ अपना दुःख ग़म छिपाने को
कैसे होऊ सच से रू ब रू समझ से परे है
कितना मुखौटा रखूँ और किस किस काम के लिए।
