प्रेम और पारिजात
प्रेम और पारिजात
तुम्हें समेट लिया है भीतर
जैसे जाड़ों में समेट लिए जाते हैं
धरती पर बिखरे पारिजात के गुच्छ
और रंग ली है हथेलियां
तुम्हारे प्रेम की श्वेत केसरी लकीरों से
लकीरें ,तुम्हारे नाम की
जो नहीं खींची थी विधाता ने
सजा ली है स्वयं
उन पारिजात के फूलों से
जानती हूँ मैं
क्षण भर के लिए सजते हैं ये पारिजात
और विलीन हो जाते हैं
छीन कर सारा सौंदर्य प्रेम का
लेकिन प्रेम कभी मरता थोड़े ही है
इन ऋतुओं के जाने से
वो तो सींचता रहता है भीतर
उन सुंदर स्मृतियों को
और हिचकियां उसकी , विवश कर देती हैं
फिर से पारिजात को खिल जाने के लिए।