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PRADYUMNA AROTHIYA

Abstract

4.8  

PRADYUMNA AROTHIYA

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मासूम ख्यालों वाला अपना बचपन

मासूम ख्यालों वाला अपना बचपन

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344


दो कमरों के घर में

बीता अपना बचपन,

यादें देकर

अपनी खट्टी-मीठी

कहाँ खो गया

अपना बचपन,

फिरते गलियों में

आवारा परिंदों से

नई पहचान खोजने

घूमा करता अपना बचपन,

माँ कहती

घर जल्दी आना

देर हुई तो डांट पड़ेगी

फिर न कोई 

झूठी बात चलेगी

पर गलियों में

दोस्तों की मण्डलियों में

रोज घूमता अपना बचपन,

भूख लगी तो 

घर वापिस आयें

यही रोज हम दोहरायें

पर दरवाजे पर बैठी माँ

राह ही तकती

न जाने क्यूँ 

यह समझ न पाया

अपना बचपन,

जब बच्चे घर पढ़ने आते

बाबूजी का चश्मा

कहाँ गुम हो जाता

मालूम नहीं कहाँ छुप जाता

उसे खोजने दीवानों सा 

फिरता अपना बचपन,

बाबूजी हम को भी 

रोज पढ़ाते

रोज किसी न किसी बात पर

हम डांट खाते

पर किताबी भाषा

समझ न पाता

कहीं तस्वीरों में खो जाता

मासूम ख्यालों वाला

अपना बचपन,

अपनों से लड़कर 

अपनों के ही पीछे चले जाते

भाई से भाई बनकर

घर वापिस आते

नादानी में हम 

न जाने क्या कर जाते

वहीं खेलते- वहीं लड़ते

वहीं एक हो जाते

पर फिर भी तो कुछ समझ न पाया

मासूम ख्यालों वाला 

अपना बचपन,

वो फिल्मों का शौक 

घर से बहुत दूर ले जाता

कभी अमिताभ

कभी धर्मेंद्र का अक्स दिखाता

उन्ही ख्यालों में अभिनय करता

अपना बचपन,

न कोई दुःख

न कोई उदासी

अपने ही ख्यालों में जीता

बड़ा ही खुशनसीब था

अपना बचपन,

वक़्त की धारा में 

न जाने कहाँ खो गया

मासूम ख्यालों वाला

अपना बचपन।

उम्र जैसे-जैसे बढ़ी

धुँधला सा दृश्य हो गया

फिर नई कहानियों के

गम्भीर विचारों में

कहीं उलझ गया

अपना बचपन।


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