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Mamta Singh Devaa

Abstract

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Mamta Singh Devaa

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मुझे पुरूष नहीं बनना है

मुझे पुरूष नहीं बनना है

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कोई बताये क्या कमी है मेरे स्त्री होने में

मैं खुश हूँ स्त्री का अस्तित्व स्वीकारने में


सृष्टि की सबसे सुंदर कृति सोने सी शुद्ध

क्यों बनूँ मैं राम - कृष्ण और बुद्ध ?


क्या ये बिना स्त्री के पूर्ण थे

महान होकर भी खुद में संपूर्ण थे ?


अगर सीता न करती इतना त्याग महान 

तो प्रभु प्रभु न होकर कहलाते इंसान


होते ना राधा के निश्छल प्रेम के नाते

कृष्ण हमेशा अकेले ही पूजे जाते


यदि यशोधरा सिर्फ सोचती अपना

सिधार्थ से बुद्ध बनना होता बस सपना


हर महान पुरूष की महानता में

सदियों से स्त्रियाँ खड़ी रही समानता में


अगर हर स्त्री पुरूष ही बन जायेगी

तो इनको संकट से कौन बचायेगी ?


कैसे होगी उत्पत्ति कैसे होगा सृजन तब

सारी ही स्त्रियाँ बन जायेंगीं पुरूष जब ?


क्यों मैं सोचूँ की मैं पुरूष बनूँ 

बिना सिर - पैर के सपने बूनूँ


मुझे कभी भी पुरूष नही बनना है

मैं खुद में समर्थ हूँ मुझे स्त्री ही रहना है


मैं तो हौसला हूँ संबल हूँ ताकत हूँ इनकी

माँ - बहन - पत्नी - बेटी हूँ जिनकी


मैं स्त्री थी स्त्री हूँ और स्त्री ही रहूँगीं

सबमें प्रेम - प्यार - दुलार - ही भरूँगीं


मेरे इसी रूप को स्वीकारना होगा 

ये बात हर किसी को मानना होगा


फिर न कहना की स्त्री हो तुम रहने दो

अरे ! छोड़ो भी स्त्री है इसको सहने दो


स्त्री होकर हद से ज्यादा सह सकती हूँ

चुप रहकर भी सब कुछ कह सकती हूँ


हर परिस्थितियों में डट कर अड़े रहना है

कंधे से कंधा मिला साथ खड़े रहना है


इसीलिए मुझे पुरूष नहीं बनना है

विधाता की श्रेष्ठ रचना ही बने रहना है।


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