होली के बहुत मायने हैं
होली के बहुत मायने हैं
मेरे शब्दों से देख पाओगे
झूठ के पर्दे चाक होते हुए
नहीं देख पाओगे कभी मुझे
रंगों की आड़ में दुश्मनी खेलते हुए,
लोगों को देखा है होली में
तन को रंगों से रंगे हुए
अब नहीं दिखता है कोई
अपने मन को रंगों से भिगोए हुए,
अब तो रिश्तों की तरह रंग भी नकली हो गए
मिलता नहीं कोई रंग में सच्चा प्रेम घोले हुए
आप सब मिलावट का असर देखिए
सब हैं इसी रंग में नहाये हुए,
वो होली और हुआ करती थी
जब हर कोई मिलता था गैरों को गले लगाए हुए
अजब हाल है आजकल का
अपनों को देखा हैं परायों की तरह होली खेलते हुए,
ज़माना गुज़र गया रंगों से पुते चेहरों को
बिना पहचाने मुंह में गुजिया ठूंसते हुए
अब तो अपनों के बिना रंगे चेहरे को भी देख
देखा है गुजिया की प्लेट सामने से हटाते हुए,
बरसों बीत गये गढ्ढा खोदकर
पकड़ पकड़ कर सबको डूबोते हुए
अब होली कहां किसी के बस की बात
बड़ा जिगरा करना पड़ता है इसे खेलते हुए,
आओ सब रचते हैं द्वापर
खेलते हैं होली वृंदावन का सुख लेते हुए
चलो एकबार फिर से हैं देखते
तन को राधा मन को कृष्ण बनते हुए।
