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Mamta Singh Devaa

Inspirational

4.0  

Mamta Singh Devaa

Inspirational

दोहन प्रकृति का

दोहन प्रकृति का

2 mins
365



स्त्रीलिंग शब्द जहाँ जहाँ भी आया

उसको नष्ट करने में ही सबने चैन पाया ,


प्रकृति - धरा तक को नहीं छोड़ा

उसकी हर एक संपदा को तोड़ा ,


पता है सबको की ये जीवन का संचार है

इस स्त्रीलिंग के बिना जीना दुश्वार है ,


फिर भी सभी इसी पर करते वार हैं 

इनकी धृष्टता का नहीं कोई पार है ,


"आओ चलो थोड़े पेड़ और काटते हैं

इन नदियों में घुस कर घर बना डालते हैं ,


अरे ! हमने विज्ञान में तरक़्क़ी की है

यूँ ही नहीं बेकार में फाँका मस्ती की है ,


नये नये आविष्कार हम ढूंढ रहे है

सबको प्रमाण देंगे ऐसे ही नहीं मूढ़ रहे हैं ,


इन सब नासमझों की मती गई है मारी

प्रकृति पड़ गई हम सब पर ही भारी ,


तुमने सूखी- बाँझ समझ लिया उसी नदी को

सींचा जिसने देकर अपनी हर एक - एक बूँद को ,


याद रखना नदी वापस पलट कर आती है

काली बन विकराल रूप दिखाती है ,


हमारा ग़ुरुर क्षण में भस्म कर 

पल में हम सबको लील कर ,


हर बार हमको चेताती है

रक्तदंतिका बन दिखलाती है ,


हमने जिन पहाड़ों की हरियाली 

बड़ी निर्दयता से काट डाली ,


अब जब भी बादल गरजते है

बूंदें नहीं वो पहाड़ हम पर बरसते हैं ,


प्रकृति को मत चुनौती दो

उसे बस अपनी मनौती दो ,


स्वीकार करती है वो हर चुनौती

टूट पड़ती है बन कर विपत्ति ,


मनौती माँगो हे ! माँ हे ! जननी

हमारी पीड़ा तुमको है हरनी ,


अहंकार में हमने जो की है नादानी 

उसकी कीमत हमको ही है चुकानी ,


कभी नहीं हम अहंकार करेंगे

अपनी अज्ञानता स्वीकार करेंगे ,


जितना दोहन किया तुम्हारा

अब फर्ज बनता है हमारा ,


हम सब अपनी गलती सुधारे

तुमको तुम्हारी संपदा से संवारें ,


तुम्हारी दौलत का कर्ज है उपर हमारे

कर सहित उसको अब तुम पर वारें ।



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