दोहन प्रकृति का
दोहन प्रकृति का
स्त्रीलिंग शब्द जहाँ जहाँ भी आया
उसको नष्ट करने में ही सबने चैन पाया ,
प्रकृति - धरा तक को नहीं छोड़ा
उसकी हर एक संपदा को तोड़ा ,
पता है सबको की ये जीवन का संचार है
इस स्त्रीलिंग के बिना जीना दुश्वार है ,
फिर भी सभी इसी पर करते वार हैं
इनकी धृष्टता का नहीं कोई पार है ,
"आओ चलो थोड़े पेड़ और काटते हैं
इन नदियों में घुस कर घर बना डालते हैं ,
अरे ! हमने विज्ञान में तरक़्क़ी की है
यूँ ही नहीं बेकार में फाँका मस्ती की है ,
नये नये आविष्कार हम ढूंढ रहे है
सबको प्रमाण देंगे ऐसे ही नहीं मूढ़ रहे हैं ,
इन सब नासमझों की मती गई है मारी
प्रकृति पड़ गई हम सब पर ही भारी ,
तुमने सूखी- बाँझ समझ लिया उसी नदी को
सींचा जिसने देकर अपनी हर एक - एक बूँद को ,
याद रखना नदी वापस पलट कर आती है
काली बन विकराल रूप दिखाती है ,
हमारा ग़ुरुर क्षण में भस्म कर
पल में हम सबको लील कर ,
हर बार हमको चेताती है
रक्तदंतिका बन दिखलाती है ,
हमने जिन पहाड़ों की हरियाली
बड़ी निर्दयता से काट डाली ,
अब जब भी बादल गरजते है
बूंदें नहीं वो पहाड़ हम पर बरसते हैं ,
प्रकृति को मत चुनौती दो
उसे बस अपनी मनौती दो ,
स्वीकार करती है वो हर चुनौती
टूट पड़ती है बन कर विपत्ति ,
मनौती माँगो हे ! माँ हे ! जननी
हमारी पीड़ा तुमको है हरनी ,
अहंकार में हमने जो की है नादानी
उसकी कीमत हमको ही है चुकानी ,
कभी नहीं हम अहंकार करेंगे
अपनी अज्ञानता स्वीकार करेंगे ,
जितना दोहन किया तुम्हारा
अब फर्ज बनता है हमारा ,
हम सब अपनी गलती सुधारे
तुमको तुम्हारी संपदा से संवारें ,
तुम्हारी दौलत का कर्ज है उपर हमारे
कर सहित उसको अब तुम पर वारें ।