आकाश गंगा
आकाश गंगा
हमदर्द खुद की सूरत में,
आंखे नम कभी नहीं।
डूबे यह तिनके लहर तले,
फिर भी डर कर सैर नई।
खड़े खिले जो फूल हमारे,
सींचे हुए है खून तले।
मै हार कर हारा नहीं ,
क्यूंकि मन की माटी पाषाण कहीं।
यह जो राह उठे पर्वत बने,
इस राह से राही पूछता।
तू क्यों सोचता तू आसमान है,
जब मै आकाश गंगा पूजता।
