कहाँ?
कहाँ?
कितना
भर लेते हैं हम
जीवन में
ये ऐसा
वह वैसा था
इसमें यहां कम था
वो वहां ज्यादा
मुझे ही क्यों
या मुझे क्यों नहीं।
ये जीवन
जिसे हम अपना
समझते है
उसमें कितना कुछ
जोड़ लेते हैं
यहां से ये लेकर
वहां से वह पाकर
कभी चतुराई से किसी को
अपना कर
कभी किसी को अपना बना कर।
सब होता रहता है
किसी प्रोग्रामिंग की तरह
जो पहले से
एम्बेड है मस्तिष्क में
जो जताता है
ये जीवन अपना है
इसमें जो कुछ संभव हो
जीने की संतुष्टि
के लिए
वह करना है।
गढ़े हुए <
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मानक जो जीवन को
दिशा देने और सहज करने को
हम जैसों ने
अपने लिए ही स्वीकार
और अस्वीकार
किए है
वे भी भ्रमित करते हैं
की ये जीवन अपना है।
यही जीवन
जिसके लिए तामझाम
सजाया धोया ढोया जाता है
लुप्त हो जाता है
किसी पल
तो भी
जीवन में सजगता आती है
उसी जीवन को
और सहेजने के लिए
अपनो के लिए
जो जुड़े हैं
अपने लगते जीवन से।
जीवन में
अपनी चीजें
खोने के बाद दुख होता है
लेकिन
कहाँ होता है
वह दुख का आभास
या हम
जीवन को खो देने के बाद
जो अपना लगता है!