पुकार
पुकार
मुझे
यह जीवन
पीठ पर रखा
बड़ा भारी बोझ
मालूम होता है
नींद के झोंके
अक्सर बुलाते हैं
"आ जाओ,
अब सो जाओ"
मगर फिर
जैसे ही इस जीवन
से मुक्ति का
सोचती भर हूं
तो वही जीवन
कुछ पुकारो, चेहरों
और संबंधों
के रूप में
मेरी पीठ पर,
गिरने के भय से
मुझे कस कर
पकड़ लेता है
और फिर से
महसूस होने लगता है
इन सबके प्रति
मोह
जो इस
मुक्ति की सोच
पर कर्तव्य और प्रेम की
नकेल डाल देता है,
प्रेम और कर्तव्य के रंग में
रंगी यह नकेल ,
मेरी दृष्टि और दृष्टिकोण
को अगले ठौर तक
बस खींचे
लिए चलती है,
नींद को बहलाती है
अगले मुकाम
तक।
इन सब में
सांस बस
कभी कभी फूल जाती है
पीठ भी
कभी कभी दुख जाती है।
गला सूखता
महसूस होता है
मगर फिर
कानों में वही आवाज
वही राग अनुराग
उठाता चलता है
मेरे थके हारे कदमों को,
दिखाते हुए उस अनदेखी
मंजिल को,
जहां से इस
पीठ की जरूरत
न होगी किसी को।
और शायद
तब मुक्त हो जाये
ये तन और मन
हर बंधन से
और अंततः सो
पाऊं मैं
असीम शांति
की गोद में
अनंत काल तक।