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PRADYUMNA AROTHIYA

Abstract Tragedy

4  

PRADYUMNA AROTHIYA

Abstract Tragedy

सपनों की दुनियां

सपनों की दुनियां

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कोई बात 

जो कानों से गुजर रही थी

यकीनन वही 

सपनों के परिधान बुन रही थी।


खाली नहीं था गेह का कोई कोना

गहरी नींद सुलाने 

अनजान हवा बहे जा रही थी।।


सपन किसको प्रिय न थे

मगर जिंदगी को जीने के लिए

सुबह रोज दस्तक दे रही थी।


कोई बेखर सोया

कि दुनियां यही है

सायद वही कल दरवाजे पर

दुःख की चिंता दे रही थी।।


जीने में उसे कोई हर्ज न था

मगर वही जिंदगी हो

इस बात का यकीन न था।


यह जानकर भी

वह अल्पकालिक खुशी है

जिंदगी स्वयं उसे जीने के लिए

सुलगती लकड़ियों में हवा दे रही थी।।


जो दृश्य थे आँखों में

वो हमेशा एक न थे,

उनके भी अपने अपने रूप थे।


माना वो जीती जागती जिंदगी न थी

मगर वह किसी न किसी रूप में 

जिंदगी का अक्स ही थी

शायद इसीलिए

वह हकीकत से दूर

सपनों की दुनियां को बसने दे रही थी।।


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