Malvika Dubey

Tragedy Fantasy

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Malvika Dubey

Tragedy Fantasy

कैकेई तुम ऐसी तो ना थी

कैकेई तुम ऐसी तो ना थी

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कैकेई तुम ऐसी तो न थी,

फिर बदला किसने तुमको यूं?

जो रामायण रचाई तुमने वो


राम तो तुम्हें भारत से प्रिय था

सत्ता का मोह तो तुमने कब का त्याग दिया था ।

तुम्हें कहां राजपाट का शौक था

कहां ही कोई झूठा रौब था ।


तुम तो पिता की सबसे प्रिय दुलारी थी

सात भाइयों में सबको प्यारी थी

किस गुण में तुम राजकुमारों से भिन्न थी

रूप में परम सुंदरी थी ही

युद्ध में भी सबसे निपुण थी


माना की थोड़ी जिद्दी थी

पर अश्वपति की लाडली पे थोड़ी तो 

ऐंठ तो जंचती थी,

मां के बिन तुम्हें मंथरा ने पाला था

क्यों न मानती उसका कथन जो बचपन का एक लौटा सहारा था


यूं तो प्यारा पे विश्वास तुम्हारा आधा था

और हो भी क्यों न?

अनजान हैं सब उससे जो तुम्हारे बचपन की वो गाथा है


राजा अश्वपति को वरदान ऐसा

पशु की भाषा का ज्ञान था

पर अभिशाप था जो साझा ये 

भेद किसी और से

तो अपना काल बुलाएंगे 

शुभलक्षणा से भूल हुई जो उस भेद को जानने की हठ कर बैठी

और उस के क्षण में कैकेई अपनी मां गंवा बैठी


कोई न पूछेगा तुमसे उस दिन क्या तुम्हारी दशा थी

उस क्षण क्या तुम्हारी मनोव्यथा थी


लेकिन इन सब के बाद भी तुम तो खिल खिलाना जानती थी

तुम तो प्रेम को भगवान मानती थी

कलम और तलवार दोनों कि कलाएं जानती थी

पर क्यों की कोई तुम्हारा यह रूप इतिहास को दिखाएगा

क्यों न राम सीता के दुख का दोष तुम्हें देना चाहेगा


तुम शौर्य से भरपूर थी और भय से कोसो दूर थी

ऐसे ही नहीं तुम दशरथ की प्रिय थी

तुम्हारे व्यक्तित्व ने कौशल्या दीदी का भी दिल जीत लिया

सुमित्रा को भी भरपूर तुमने स्नेह दिया

फिर भी बरसों बाद तो तुम्हें ईर्ष्यालु ही दिखाया जायेगा

छीना कौशल्या का हक तुमने यहीं कहा जायेगा


शांता तो जैसा तुम्हारा देवताओं से मिला सबसे प्यारा आशीर्वाद थी

तुम्हारी हर प्रार्थना में अयोध्या कल्याण की याद थी


तुमने युद्ध में भी बहादुरी असीम दिखाए थी

अयोध्या के महाराज की जान तुमने ही तो बचाई थी

क्यों गलत था फिर जो जो वचन पूर्ति की याद दिलाई थी


क्या रघुकुल में सिर्फ त्यागने की रीत है

अधिकार छोड़ना ही क्यों इस कुल का अतीत है


आखिर शांता का त्याग फलदायक रहा

पुत्र सुख पाने कितना दर्द कौशल्या दीदी ने सहा

राजकुमारों का आगमन में कुछ ही समय की प्रतीक्षा थी


राम की शीतलता सबका मन लुभाती थी

अलग सी दैविकता आचरण में नजर आतीं थी

लक्ष्मण तो बचपन से राम की परछाई था

शीतल जल और ज्वाला क्या अद्भुत मेल था

भरत शत्रुघ्न का भी स्नेह अटूट रहेगा

भरत राम के पथ चिन्ह पे चले यह तो तुम्हारा सौभाग्य होगा


मंथरा भी सबको नानी मां सा स्नेह करती थी

जैसा जगत सोचता है वो उतनी क्रूर तो ना थी


गृहस्थ आश्रम में कदम रखने का नव दंपति का सौभाग्य था

आईं मिथिला की राजकुमारी वधू बनकर तुम्हारा अहोभाग्य था


जनक सुताएं तो तुम्हारी अपना प्रतिबिंब थी

साक्षात लक्ष्मी रूपी मिथिला कि शिरोमनी थी


उन्होंने भी तुम्हें मां से अधिक माना था

 सबने तुम्हारा प्रेम पूर्ण स्वीकारा था

फिर कैसे यूं तो निर्दयी हुई

कैसी तुमसे वो भूल हुई


क्या वो क्षमा योग्य है जिसने उर्मिला से लक्ष्मण को अलग किया

तुम्हें तो ग्लानि का भी हक नहीं जिसने माता पिता से पुत्र छीन लिया


क्यों कोई याद रखे की अयोध्या के सिंहासन पे 14 वर्ष का श्राप था

क्यों न दोष हो तुम पे की तुम्हारी लालसा का पाप था

 सिंहासन का राजा उन 14 वर्षों के लिए अभागा था

 आमंत्रित करे काल को जो उन वर्षों के लिए अयोध्या का राजा था


भूल जायेंगे जान साधारण की तुम्हारे संस्कारों ने मर्यादा पुरुषोत्तम राम 

की पादुका 14 वर्ष अयोध्या पे स्थापित करवाई थी

यह कैकेई का ही भरत था जिसने भाई के लिए मां से भी रिश्तों की हर कोटि ठुकराई थी


यह भेद तो गुप्त रहेगा की चौदह वर्ष का उस सिंहासन पे शासन करने वाले को मृत्यु का श्राप था

कहानियों में तो सदा ही दशरथ की मृत्यु तुम्हारा ही पाप था


ना आशा रखना किसी से की तुम्हें अपना समझेंगे

ना शिकायत किसी से की ना तुम्हारा दूसरा पहलू देखेंगे


सह जाना जो भरत के वो कटु वचन हों

मत रोना चाहे कितना भी दर्द दशरथ के मुख मोड़ने पर हो

आंखें मत झुकाना चाहे नगर वासियों के दृष्टि में कितनी घृणा हो

 मन को समझा लेना नारायण के इस अवतार की लीला में तुम भी मुख्य किरदार हो


ना आवश्यकता तुम्हें सफ़ाई देने की तुम गुनहगार नहीं

तुम जानती हो अपने निर्णय के कारण को चाहे माने ना कोई सही



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