सिमटते आँगन
सिमटते आँगन
जब से घर ये सिमट लियें हैं
आँगन घर से निकल गयें हैं
तुलसी तुम्हें कहाँ लगाऊँ
सुख गया है आँख का पानी
कौन सा जल मैं तुम्हें चढाऊँ
लाँघ आयें हैं सागर कितने
जमा किए संसाधान कितने
शहर शहर सब चख़ आयें हैं
सिल बट्टे की चटनी का
वो स्वाद भला कैसे बिसराऊँ
भाग&n
bsp;रहते हैं साँझ सवेरे
पीछे छूट ग़यें सब अपने
जाना कहाँ कहाँ है पहुँचें
ऐसा भी क्या महल बनाना
भूत ही जहाँ बस भटक रहें हैं
सारी उमर ख़रच दी हमने
लाए क्या क्या ना कमाकर
चले जब हम
काम आये बस
एक तुलसीदल और गंगाजल।