सिमटते आँगन
सिमटते आँगन
1 min
350
जब से घर ये सिमट लियें हैं
आँगन घर से निकल गयें हैं
तुलसी तुम्हें कहाँ लगाऊँ
सुख गया है आँख का पानी
कौन सा जल मैं तुम्हें चढाऊँ
लाँघ आयें हैं सागर कितने
जमा किए संसाधान कितने
शहर शहर सब चख़ आयें हैं
सिल बट्टे की चटनी का
वो स्वाद भला कैसे बिसराऊँ
भाग रहते हैं साँझ सवेरे
पीछे छूट ग़यें सब अपने
जाना कहाँ कहाँ है पहुँचें
ऐसा भी क्या महल बनाना
भूत ही जहाँ बस भटक रहें हैं
सारी उमर ख़रच दी हमने
लाए क्या क्या ना कमाकर
चले जब हम
काम आये बस
एक तुलसीदल और गंगाजल।