फ़क़ीर
फ़क़ीर
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नफरतो के अंबार लग गए जीते जी
चार कंधो पर आते ही सबके पसंदीदा हो गए
रूह थी जिस्म में जब , सुख से निवाला न मिला
श्राद्ध के दिन पंच पकवानों से थाल भर गए
फकीर सी गुजरी जिंदगी सीधे सादे दो कपड़ो में
सूखे पत्ते गिरते ही खजानो के दर खोले गए
कितनी बेअदबी से पेश आता है इंसान यहाँ
उम्र के साथ साथ साँसों के पैमाने कम होते गए
कागज पर कारोबार करने वालो की हैसियत है नवाबों वाली
हकीकत में जीने वालो को, खाने के लाले पड़ गए
इस खरपतवार को रोकने की है निहायत जरूरत
समंदर के किनारों को जीते जी जो खा गए
जंगलराज के इन निर्देशों को मानना क्या सही है 'नालन्दा'
जब दरख्तों के जड़ों में दीमक के पहाड़ लग गए।