बिसात
बिसात
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कितने तारे टूटे आसमान से चाँदनी रातों में
फलक कहाँ गुमसुम उदास रोते रहते
कितने पत्ते गिरे शाखों से पतझड़ में
पेड़ कब बसंत से हरियाली उधार लेते रहते
किसी की आग बुझा नहीं पाते जो मनमानी से
अक्सर वही चेहरे मासूम जलन पाते रहते
कोई कांधे पर बिठा दे तो गुरूर मत करना
लोग सिर पर उठाकर मिट्टी में मिलाते रहते
दुश्मनों की क्या बिसात जो दमकते चेहरे को मुरझा दे
यह हुनर तो किसी करीबी अपनो में ही पाते
परिंदे घर लौट आये तो बवाल मचा रहा
यह किस आशियाने से नाता हम निभाते रहते
मरहम की खो गई करामात दर्द को मिटाने की
या खुदा दर्द ही अब दर्द की दवा बन जाते
कितनी बंदिशों में जकड़ कर रखती है जिंदगी 'नालन्दा'
मुश्किल से पलक को तेरी ओर उठा पाते।