साहित्य की व्यथा--एक व्यंग्य
साहित्य की व्यथा--एक व्यंग्य
अजीब स्थिति खड़ी हुई
साहित्य स्पर्धा के चक्कर में-
तालियां बजा कर जिता रहे यहां,
साहित्यकार के अहसासों और भावनाओं को,
तालियों के टक्कर में-
जितनी तालियां पिटवा सकते हो
उतने बड़े साहित्यकार हो बेटा-
यह गुण तो अपनाये हुए थे अब तक केवल नेता-अभिनेता-
कैसे करवटें लें, फंसे अब तो समय के चक्कर में-
तालियां बजा कर जिता रहे यहां,
साहित्यकार के अहसासों और भावनाओं को,
तालियों के टक्कर में-
तुम गांवों की बाते करने वाले-
गरीबों के आँसुओं को भीगी स्याही में लिखने वाले-
फटे वस्त्रों में जो जीवन खोजते-
दुनिया की गलत नीतियों और राजधर्म दिन रात कोसते-
इनके खाली पेटों में
दो दानों के खातिर लिखे तेरे अक्षर को-
क्या तालियां पीटेंगे ये बिना पढ़े निरक्षर तो-?
नहीं तालियां देना मुझको इससे कोई काम न होगा-
कम से कम मेरा लेखन रिश्तों में बंधकर बिना पढ़े बदनाम न होगा-
जब कुछ खुशियां बाटूंगा इनकी
और बुझी आंखों में कुछ जीवन की आशा जागेगी-
मेरी विजय तभी होगी जब इनके दिल की धड़कन में खुशियों की ताली बाजेगी-
मैं सीधा सादा बंदा, नहीं हूं घनचक्कर में-
तालियां बजा कर जिता रहे यहां,
साहित्यकार के अहसासों और भावनाओं को,
तालियों के टक्कर में-