कुछ अधूरा
कुछ अधूरा
एक दफ़ा फिर कुछ अधूरा रह गया है भीतर,
यह पुराने अधूरों से मिलकर,
प्रतिशोध में कोई षड्यंत्र रच रहा है,
ऐसा लगता है इक गांठ बन चुकी है,
जो दिन प्रतिदिन बड़ी होती जा रही है,
इसके रेशे, मेरे अंतःकरण में, फैलते जा रहें हैं,
ये जकड़ रहे हैं मेरे होने को,
कभी कभी सपनों में रूपांतरित हो कुछ चेष्टा करते हैं,
चेतावनी का दम भरते हैं,
इन्हीं सपनों में इन अधूरों को
पूरा करने की नाकाम कोशिश करता हूँ,
इससे कोई फ़र्क नहीं पड़ता कि
उन कहानियों में मेरी स्थिति कितनी आपातकालीन है,
या सपनों का मुख्य सार क्या है?
मैं तो बस इन गाँठों में,
उन अधूरों को तराश कर,
अलग करना चाहता हूँ।
एक एक करके उन्हें
पूरा करने की कोशिश करता हूँ,
इनमें, मैंने ब्रह्मांड के साथ साथ,
अपने वजूद को भी खत्म होते देखा है,
और तब भी उससे मुझे फ़र्क नहीं पड़ता,
न यह चिंता नहीं रहती कि मैं ना रहूँगा,
या तुम ना रहोगे,
तब बस यह डर रह जाता है कि,
कहीं, ये! अधूरा, न रह जाए।