यादाश्व
यादाश्व
तनहाई भी क्या व्यंग्य करते जीती है,
अकेलेपन कि देवी होकर भी अकेले नहीं आती,
अपनी, यादों के महाकाय, अश्व पर सवार हो कर आती है,
और कभी-कभी उस पशु को मेरे धोरे भी छोड़ जाती है,
और उसकी पीठ पर, बीते हुए समय की रस्सी से,
एक गाड़ी बँधी हुई मिलती है।
हर बार उस ठेले पर कोई अलग सवारी चढ़ी रहती है,
जिनमें होती हैं कुछ धुँधली, बिसरी शक़लें,
कुछ चमकती, जानी-पहचानी आकृतियाँ,
और कभी कभी उस ख़ाली गाड़ी में बैठी मिलती हो...तुम।
कभी घूँघट ओढ़े, पल्लू अपने अधरों में मीचे,
कभी मुस्कान लिए, ताज़ी, शीतल पवन में बालों को लहराते,
और फिर वह गाड़ी किसी दूसरी मंजि़ल को निकल जाती है,
बिना किसी सवारी को उतारे,
बिना किसी गमन सीटी या संकेत के।
मेरे पढ़ाव पर कोई भव्य नगर नहीं है,
शायद कोई नगण्य गाँव तक भी नहीं है,
एक पुराने, खुरदुरे, मील के पत्थर के पास बसा पियाऊ हूँ मैं,
जहाँ मेरे निश्चल समय के कूएँ से गाड़ियाँ अपना ईंधन भरने आती हैं,
और सवारीयाँ मेरे स्मृति-विषाद कि धार से अपनी तृष्णा मिटाने आती हैं,
और फिर कुछ देर बाद वापस गाड़ी में भरकर,
अपने अपने रास्ते निकल जाती है।
संभवत किसी और पियाऊ के पास,
न ठहरने के लिए, फिर से।
इस संकर्षण से लगभग पूरी तरहं शोषित,
केवल प्रतीक्षा में लीन रह जाता हूँ,
कि जल्दी ही, पुनः एकाकीपन की देवी आएगी,
तन्हा नहीं, अपने यादाश्व नामक पशु पे सवार,
और मै, एक बँधुआ, बाल मज़दूर की भांति,
अपने समय के कुल्हड़ में,
अपनी स्मृति-विषाद की गुनगुनी चाय,
सवारियों को उत्साह के साथ परोसता फिरूँगा।

