खानाबदोश
खानाबदोश
नासमझ हूं मैं, ज़िंदगी को अपनी खानाबदोश सा बना रखा है।
शहर दर शहर जाने किसकी तलाश में भटकता हूं।
अंजान शाखाओं में तिनका तिनका जोड़ एक घोंसला बनाता हूं,
जब पंख पसारने का समय आता है मैं पंछी बन उड़ जाता हूं।
मिट्टी को छोड़ जाने क्यों रेत से दिल लगाता हूं,
तोड़ती हैं लहरें जब मेरे घरौंदे को तो बस चुपचाप देखता रहता हूं।
जाने कब मैं मकानों को छोड़ अपने घर में बस पाऊंगा,
जाने कब चंद लम्हे फुरसत के जुटा पाऊंगा,
जाने कब मुझे चैन की सांस आएगी, जाने कब मैं चैन से सो पाऊंगा।