जाग, उठ, और लिख
जाग, उठ, और लिख
कवि मन जाग उठ और कुछ लिख
ना रहे आसमां और धरती पृथक
कवि मन जाग उठ और कुछ लिख
सजग इस मन में क्यों चेतना सोती है,
क्यों प्रति पल तुझे वेदना होती है
कष्टों से ओत प्रोत यह मन
क्यों चुपचाप बैठा है
जब कालरात्रि सा साया सारे जग को यूं घेरा है
कर दे सब कुछ तू छिन्न भिन्न
कवि मन जाग उठ और कुछ लिख
व्याकुल चेहरे है व्याप्त जहां
नहीं कुछ भी है पर्याप्त यहां
सागर की लहरों से सब चलते है
साहिल पर भी नहीं ठहरते है
ऐसे में कवि दे दुनिया को कुछ सीख
कवि मन जाग उठ और कुछ लिख
चिंतामुक्त चेहरे चपलता से चमका दे
फिर यूं वर्षा कर शब्दों की
रोते को भी हंसा दे।
सौन्दर्य भरा इस दुनिया में
बस निकट सबके तू पहुंचा दे
सपाट बने इन मुखों पर
दे आज लकीरें खींच
कवि मन जाग उठ और कुछ लिख
ना रहे आसमां और धरती पृथक
कवि मन जाग उठ और कुछ लिख