लत
लत
हर दूसरे पहर एक तर्ग़ीब उठती है,
और उठता है उसके साथ मेरा क़लम,
जो मंडरा रहा होती है, कुछ कोरे कागज़ो से भरी हुई क़िताब के ऊपर,
लेकिन तभी अपनी मुट्ठी को इस क़दर ज़ोर से मींच लेता हूँ,
कि हथेलियों का सारा खू़न जम जाता है, और मेरे हाथ नीले पड़ जाते हैं।
जैसे किसी ज़ंजीर ने मेरे हाथों को जकड़ रखा हो।
ये ज़ंजीर वो पाबंदी है, जिसने मुझे क़लम चलाने से रोका हुआ है।
मुझे तुम्हें वो ख़त लिखने से रुका हुआ है, वो ख़त...
जो उन बुझते हुए अंगारों को फिर से सुलगा सकता है,
जो हमारे अजीबोग़रीब रिश्ते के टूटे चूल्हे में,
उस शोरबे को, जिसे तुम प्यार कहती थीं, पकाते थे।
मैंने उनहीं अंगारों पर दूरीयों की रेत डाल दी थी,
उस आग के डर से जो हम दोनों के जहानों को झुलसा सकती थी।
मेरा वो एहसास, तुम्हारा वो प्यार, अध-पका ही रह गया,
जिस पर अब भूली बिसरी यादों की फफूंदी लगी हुई होगी।
आग का ख़तरा तो हमेशा ही बना रहेगा मग़र,
जो काग़ज पे, मेरे क़लम की फ़क़त रगड़ भर से ही, जल सकती है।
इतना आतिश-ज़दा ईंधन तो है मेरे तुम्हारे दर्मियां।
लेकिन उस सड़ते हुए प्यार को दोबारा से पकाने का क्या फा़यदा?
पर ये अंगार हैं की बुझते ही नहीं, ये लत है की ठंडी पड़ती ही नहीं।
अब ये मेरी बनाई हुई ज़ंजीर ही हैं, जो मुझे इस इल्लत से रोकती है,
मानो यही मेरी दानों की माला है,
जो ईश्वर से मुझे जोड़े रखे हुई हैं,
जो कोई पाप करने से मुझे रोके रखी है।
काश कि इस लत की ताक़त के आगे मेरी ज़ंजीर बनी रहे,
अगर जो ये टूटी तो ये मचलती क़लम,
हमारी ज़िदगियों में लहक का सैलाब लाएगी।