दाना
दाना
पुराने चरमराते तहख़ाने के
एक अंधेरे कोने में
कुछ किताबें पड़ी हुई हैं,
जिन पर धूल का पहरा चढ़ा हुआ है।
एक सख़्त जिल्दबंदी है,
जो किसी मैले पैराहन की तरह दिखती है
जिसके छोरों से
सुर्ख़, खुरदरी फ़र्श पर
दानिश टपक रहा है
और वहीं तजुर्बे की नमी पर
कुछ वक़्त पहले हरी दूब उगी थी,
जिनकी नोक अब हल्की पीली हो चुकी है।
पर उन्होंने एक ताज़ी बेल को बुनियाद दी है।
जो बढ़ते बढ़ते,
तहख़ाने की छत की दरख़्तों को कुरेद कर,
उम्मीद के उजाले की पुकार की तरफ़,
खींचती हुई बाहर निकल आती है।
बरसों से बिछड़ी रोशनी
से मिलने की ख़ुशी में
उसके सिरे से एक कली फूट पड़ती है,
नई नई।
जिसकी ख़ुशबू में
सारी इंसानियत नहाएगी अब,
और शायद
जिन पापों को गंगा भी ना धो सकी,
जो चमड़ी से परे,
रूह में छुपे हुए हैं
उन्हें बहा ले जाएगी।