डोर
डोर
वो डोर जो,
कई महीन,
कुछ मखमली, कुछ खुरदरे,
रेशों से बनी है,
तुम्हारे पैरहन के कोने से झूल रही थी
अब तजुर्बों की गवाहियाँ सुनते सुनते
मैली हो चली है।
अब पता नहीं
और कब तक एक घिसे,
कमज़ोर टाँके से लटकी,
कुछ पुरानी, बचकानी यादों के माफ़िक
बेपरवाह झूलती रहेगी?
पता नहीं कि वो और कुछ देर झुलेगी क्या यहीं
या फिसल कर खो जाएगी
ज़िन्दगी के दस्तावेज़ीकरण में कहीं?
