पहली
पहली
ज़ाहिद हैं फिर भी मुझको लुफ़्त परस्त जाने क्यों बता रखे हैं।
शायद इसलिए के दिल ओ दिमाग की तंग फिज़ा में आप बसा रखे हैं।
तो रेत क्यों दूं उंगलियों के ऊबड़ खाबड़ नाख़ूंनों को
पेशानी पर नसीब की रेखाएं इनसे ही तो गुदवा रखे हैं।
बाहर की फ़जा-ए-माहौल का इल्म नहीं है क़ैद में मुझे कती
तूफ़ानी रातों में भी दहलीज पर उम्मीद-ए-दिये जला रखे हैं।
लंबा है रास्ता-ए-सेहरा मगर मंजिल-ए-नख़लिस्तान साफ़ है
मृगतृष्णा बोल- बोल कर सीधी राहों पर भी मोड़ बिठा रखे हैं।
दिल दबा है, दिमाग रला है, रूह विकृत और दरदरी हो गई है
क्या जाने कितने युगों से बेचारी ने करोड़ों जन्म भिड़ा रखे हैं।
