हाल
हाल
गै़रदिलचस्पी का आलम है पसरा मेरे बिस्तर-ए-ज़हन पर
कुछ इस क़दर कि चश्म-ए-बंद से भी ऊंघता रहता हूँ।
बेशतर खोटी गुफ़्तगूओं का ग़म है और ज़्यादातर लगाई-बुझाई बातों से परहेज़ भी।
मेरे चेहरे की त्योरियां ही, समाज के पूछे गए हर सवाल के जवाब कह देती हैं।
तुम्हारे सवाल-ए-हालात पर, अपने जवाब से तुम्हें परेशान क्यों करूँ?
मैं ढाक के तीन पात हूँ, बहार और पतझड़ में दिखता तो हूँ एक बराबर, बस रंग बदल लेता हूँ।
साफ़ आसमान में भी स्याह बादल उमड़ आएं हैं, ऐसा टोना कसा है चीख़ते ख़्यालों का।
सैर पर निकले होशयार ख़बर लाएं हैं, कि माहौल तो उम्दा ही था कुछ वक्त पहले बाहर का।
बारिश में जितना मर्जी़ भीग ले ऐ दोस्त, तेरे हाल पर एक इस्तिफ़्सार भी न पूछेंगें।
मूंह खोल कर ज़बान से कितनी ही बूंदे बटोर, न ये प्यास डूबगी और न ये बादल सूखेंगे।
इस मसरूफ़ीयत के ज़माने में, जहाँ थमना गुनाह है, वहाँ हर ज़बरदस्ती का काम मुझे हराम है,
और काम न करने के बहाने बना कर मसरूफ़ दिख जाना भी अपने आप में एक बड़ा काम है।
तू ख़ुदा है, जब सब जानता है, तो हर पाप पे एतराफ़ क्यों माँगता है?
ख़ता कर, इकरार करने की आगही नहीं है मुझे, ये क्यों नहीं मानता है?
दीद-ए-हबीब का गहरा सेहर है, बिना अफ़ीम मुझे मदहोश कर देता है।
चाल तो साबित-क़दम दिखती हैं मेरी मगर दिमाग लड़खड़ाया रहता है।