फिर क्यूँ झगड़ते हैं...?
फिर क्यूँ झगड़ते हैं...?
इंसान के संबंध रोज़ बनते हैं
जन्म लेते हैं सभी भुगतते हैं।
क्यूँ बनाया जगत ईश्वर ने
मोह के सर्प रोज डसते हैं।
जीव हर एक है खिलौने सा
टूट कर एक दिन बिखरते हैं।
ये जगत है सरायख़ाना फिर
क्यूँ जमीं के लिए झगड़ते हैं।
चार दिन ही जहाँ में रहना है
पर नहीं लोग ये समझते हैं।
जब तलक जेब है भरी तेरी
लोग सब इर्द- गिर्द रहते हैं।
अंत में मौत की पनाहों में
सब अकेले ही जा सिमटते हैं।