महिला दिवस
महिला दिवस
सियासत होती देखी है महिला उत्थान पर हमेशा,
क्या कभी किसी महिला के घर जा कर देखा भी है,
बैठे बैठे ख़्याली पुलाव पकाने में क्या ही जाता है,
मुद्दा तो है ही, बस चुनावी फर्ज़ निभाना आता है।
माना कि नारी बढ़ चुकी है आगे बहुत ही ज़्यादा,
सफल होने पे उन के नाम की माला जपी जाती है,
सफर के काँटों को आखिर कौन उठाने आता है,
बस कदम कदम पर पत्थर भी तो सहती जाती है।
कहते हैं सब दूसरे घर को स्वर्ग बनाने जाती है,
तो क्या उस घर में पूरी इज्ज़त ही उसे मिल पाती है,
सब कुछ अपना छोड़ कर नया जन्म ले जाती है,
तब क्या महिलाओं पे फब़्तियाँ कसी नहीं जाती हैं?
बहुत बन जाते हैं समाज सुधारक शोहरत के लिए,
मग़र क्या वास्तव में तुम स्त्री सा दिल ला सकते हो,
कहने में क्या जाता है, महिला दिवस की बधाई हो,
रीति रिवाज़ों पर शहीद होती उन ज़िन्दा लाशों को।
क्रोध मत समझो महिला दिवस की इस परिभाषा को,
ये तो बस अश्रु हैं जो नयनों से लहु बन टपक रहे,
ये ज्वाला जब भी भड़केगी कुछ भयंकर कर गुज़रेगी,
बस अभी तो अच्छा है कोमल फूल बन महकते रहें।
सोच लो नारी तुझे यहीं रहना है, चाहे जीना मरना है,
सिसकियाँ लेना है उम्रभर या झांसी की रानी बनना है,
अब तय तो ये तुम ने ही करना है, डराना या डरना है,
बहुत हुआ अब तो अब कुछ करके ही जीना मरना है।
महिला दिवस की बधाई हो, बहुत बार ये सुन लिया,
मग़र फिर भी महिला जीवन में क्या सुधार कर दिया,
अग़र कुछ किया भी तो बस एक ही दिन के लिए,
कौन है आखिर जो समाज सुधार का ठेका ही ले गया।
