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Juhi Grover

Tragedy

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Juhi Grover

Tragedy

इन्सान

इन्सान

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सना हुआ था इस तरह वो अपने ही खून के रंग में,

सुर्ख लाल सा उसका तन-मन सपनों की लाशों से,

बस दिन-ब-दिन अपना ही ईमान खोये जा रहा था,

कि अपनों को ही अब पराया समझता जा रहा था।


रंग रहा था खूब खुद को अब वो शोहरत के रंग में,

अपनों सपनों के शोर से परे अजनबी महफ़िलों में,

ज़िन्दगी को अपनी बेजान होते देखता जा रहा था,

कि खुद भी खुद से शायद पराया होता जा रहा था।


हो चुका था दूर वो अपनी ही इन्सानियत के रंग से,

इन्सान हो कर भी इन्सान से दुश्मनी निभा कर के,

जानवर का रंग उस पर खूब यों चढ़ता जा रहा था,

कि जानवर से भी वो गया गुज़रा होता जा रहा था।


कैसे कोई वाकिफ़ हो उस वक़्त की दुर्दशा के रंग से,

जब इन्सान ही खुद सना हो यों इन्सान के ही रंग से,

दौड़ में पैसों की क्यों अब ये अन्धा होता जा रहा है,

कि क्यों खुद का ही वो क़त्ल होते देखता जा रहा है? 


क्यों निकलना नहीं चाहता बाहर इस अन्धी दौड़ से,

क्यों इन्सानियत को ज़ख्मी कर अपने ही स्वार्थ से,

क्यों धर्मान्धता की ओर स्वार्थवश बढ़ता जा रहा है,

क्यों बिन सोचे समझे पुतला बन चलता जा रहा है?


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