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Hardik Mahajan Hardik

Abstract

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Hardik Mahajan Hardik

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पर्यावरण

पर्यावरण

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भारी भीड़ आबादी जहाँ अपनी ही चेष्टा में।

निहित करें गौरव वहाँ कोलाहल आवेश में।


चहुँ और वातावरण जहाँ अपना गणवेश में।

पर्याप्त निः संकोच कैसे हो निरन्तर परवेश में।


भटक रही नारी चारों ओर जहाँ कलयुग में।

कैसे सुधरेगा फिर देश हमारा इस ब्रह्मांड में।


वाद विवाद अत्याचार बढ़ रहा अंधकार में।

कैसा आज यह वक़्त फिर क्या प्रकोप में।


आशा चारों तरफ घट रही जहाँ निराशा में।

बढ़ता चला जा रहा अत्याचार जहाँ लोगों में।


कैसे होगा नया सवेरा जिसके सामंजस्य में।

प्रकोप ऐसा छाया जहाँ अपना पर्यावरण में।


जल भी बच ना पाता जहाँ इस अंधकार में।

कैसे करें तुलना फिर इसकी हम भविष्य में।


वृक्ष सूखे काट रहे लोग जहाँ वन उपवन में।

तरुवर को कैसे छाया मिलेगी वातावरण में।


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