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Shailaja Bhattad

Drama Inspirational

5.0  

Shailaja Bhattad

Drama Inspirational

हिन्दी दिवस

हिन्दी दिवस

3 mins
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लोग जाने कहाँ तेजी से दौड़े जा रहे थे,

कुछ तो हमसे ही टकरा जा रहे थे।


बड़ी मुश्किल से एक को रोक सके,

और बंदूक की गोली की तेजी से पूछ बैठे-

'क्यों भाई किधर जा रहे हो ?'

क्या कहीं आग लग गई है या कि चोरी हो गयी।


वो थोड़ा चिढ़े फिर गुर्राए,

'अजीब इंसान हैं जी आप,

भारत में रहते हैं और इतना भी नहीं जानते हैं,

आज हिन्दी दिवस है,

और भारत सरकार ने हर शहर में,

हिन्दी का कार्यक्रम रखवाया है,

जिसमें बड़े-बड़े हिन्दी मनीषियों को बुलवाया है।

आज सुबह-सुबह जाने किसका मुख देखा है,

जो इतना अच्छा दिन आया है,

अंग्रेजी सुनते सुनाते तो कान पक गए,

अब हिन्दी से सहलाने का वक्त आया है।

क्या आपको नहीं बुलाया है ?'


हम बोले- 'हिन्दी कौन पराई है,

सो अपनों से कैसी फाॅर्मेलिटी,

आधों को तो न्योता देकर बुलाया है,

शेष आधों को उनके पीछे लगाया है,

चलिए आप,

हम भी आपके पीछे-पीछे ही आते हैं,

और हिन्दी में सुनने सुनाने का सौभाग्य पातें हैं।'


'देखिये जल्दी आ जाइए।

आज हर काम समय पर होना है, और,

हमें यह सुनहरा मौका नहीं खोना है।

वरना एक साल तक और तरसना होगा,

और 14 सितंबर का फिर इंतजार करना होगा।'


घटनास्थल-

14 सितंबर है आज और आयोजित है हिन्दी दिवस।

बड़े हर्ष का विषय है कि,

आज के प्रोग्राम के चीफ गेस्ट हैं महाशुभाशुभ xyz,

आप लक्ष्मी बाई कालेज में हिन्दी के व्याख्याता हैं।


ये थे संचालन के शब्द,

जिसमें पता नहीं किसमें किसकी मिलावट थी,

और यहाँ भी भ्रष्टाचार की बू आ रही थी,

बहुत ही आदर्शवादी भाषण दिए जा रहे थे,

और हम सपनों के सागर में हिलोरे मार रहे थे,

उसी समय हमने हिन्दी में PhD करने की ठानी,

और अपनी प्रतिज्ञा उन्हें बताने की ठानी।

जवाब मिला,

बरखुरदार भावनाओं में बहकर अच्छी ठानी,

पर सोच लो अंग्रेज़ी के बिना दाल नहीं गलने की।


लगा सारे इरादे गारे मिट्टी की झोपड़ी की तरह ढह गए,

और आँसुओं की नदी में बहकर ओझल हो गए,

सोच रही थी अपने ही अपनों को झुकाते हैं,

और परायों को सिर पर बिठाते हैं,

बाहर सच्चाई से लड़ने की हिम्मत बँधाते हैं,

और अंदर सच्चाई से हाथ मिलाने को कहते हैं।

ये सोचने में मिलावट है।


हम भी इरादों के बड़े पक्के हैं,

ऐसी मिलावटी जिंदगी से समझौता नहीं करते हैं,

जो सोचा वो कर दिखलाया,

और उसी महाविद्यालय में हिन्दी का,

व्याख्याता होकर बताया,

पर साथ में हमने एक इरादा बनाया,

अब सूर्योदय होगा तो हिन्दी के साथ ,

और सूर्यास्त होगा तो हिन्दी के साथ।


कुछ सालों बाद प्राचार्य बनने का सौभाग्य आया,

और रोज ही हिन्दी दिवस मनाने का विचार बनाया,

सो हमने आदेश निकलवाया,

हर सरकारी कार्य हिन्दी में होगा,

और अवहेलना पर जुर्माना होगा।


जो सोचा वो कर दिखलाया,

ऐसा हमने उन महाशय को बताया,

और उनकी दो मुँही बातों पर से पर्दा उठाया,

व चमकते सूरज पर लगा धब्बा पुछवाया,

और लोगों को स्वतंत्रता का अर्थ समझाया,

वाकई में ऐसा करने में बड़ा आनंद आया,

और एकांत में भी हिन्दी को अपने पास ही पाया,

ऐसा सुअवसर बहुत दिन बाद आया,

पर दुरुस्त आया।


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