बेटी की माँ
बेटी की माँ
दुनिया के सुन-सुन के ताने एक माँ आज है रोती।
बेटी की माँ होने में मुझसे भूल कहा है हो गयी।
दिए मैंने उच्च शिक्षा, घर परिवार का ज्ञान दिया।
बड़े बुजुर्गों का मान सम्मान अपनेपन का भान दिया।
संस्कारों से सुसज्जित कर उसका विवाह किया।
माँ जो पूजनीय है वो बेटी का घर तोड़ने वाली कहलाने लगी।
जा बेटी अब मैं ना सुनूंगी तेरी बाते।
सुख भरे तेरे दिन कटे या दुख में काटे तू रातें।
अब तेरा जीना मरना तेरे ससुराल के हाथों में है।
मैंने तेरा घर सौंप दिया तुझको अब तू उनकी मान है।
ना सुनाना मुझे तेरे गम के किस्से जो अब तेरे हिस्से में है।
तेरे खाने जैसा स्वाद नहीं माँ इसलिए कम खाती हूं।
रसोई घर भरा- भरा सा लगता सब समान ताले में है।
कहते है सब राशन मायके में दे आती है, भाभी चुपके से सब खा जाती है।
मत कहना मुझको माँ याद तेरी बहुत सताती है।
मायके आने की सोचना मत अब अर्थी तेरी वही सजेंगी।
सास ससुर सबकी सेवा करना हर आदेश का पालन करना।
चाहे तुझे भूखा रखे या दे तानो का खाना।
पर बेटी अब ये तेरी समस्या तुझे ही है सुलझना।
बीमार हूं माँ फिर भी सारा काम करूँ एक पल ना आराम करूँ।
देखो ना माँ फिर सब मुझे कामचोर कहते है।
मायके से कुछ सीखा नहीं गवांर कहते रहते है।
दहेज में कुछ ना दिया यही बात हरदम करते है।
तुम जैसी ये दुनिया क्यों नहीं जो माँ मेरे दुख को पहचाने।
क्या उम्र भर सुनती रह सबके ताने बोलो ना माँ।
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सुन मेरी बेटी तेरी इन बातों से दिल मेरा बहुत दुखता है।
पर ये दुनिया मुझे घर तोड़ने वाली कहता है।
बेटी की माँ हूँ इसलिए बस चुप रहना मेरा अधिकार है।
बेटी के माँ बाप का कुछ कहना दुनिया को नागवार है।
देख प्रतीक्षा में है ये दुनिया तुझे जिंदा जलते हुए देखने को।
अगर ना जल पाये तो घुट- घुट कर जिंदा लाश बनने को।
तुम मिटा देना अपने सारे अरमान, ख्वाहिशों को उड़ा देना।
इक्कीसवीं सदी में भी बेटी तुझे दहेज की बलि चढ़ना होगा।
अगर तुम्हारे मन में आये कभी कोई प्रश्न तो पूछना इस जहां के लोगों से....
क्यों मायके में ना ससुराल में अधिकार दिया।
जिसे समझा अपना उसने ही मेरा प्रतिकार किया।
उसका एक थप्पड़ जब मेरे गालों पर पड़ता है।
वो चोट तन को नहीं मन को छलनी करता है।
तो क्या करना चाहिए ऐसे में एक बेटी और एक बेटी की माँ को.....
प्रतीक्षा अपनी बेटी के मरने की या जिंदा रहते हुए रोज रोज मरने की......
या प्रताड़ित होता हुआ देख उसे सम्हालने की मायके लाने की .....
या फिर चुप हो जाये एक माँ अपनी बेटी को दर्द में देखते हुए भी सिर्फ इसलिए कि वो एक बेटी की माँ है।
क्यों एक स्त्री ना अपने लिए आवाज उठा सकती ना अपनी बेटी के लिए।
अपने लिए आवाज उठाये तो वो असंस्कारी, अमर्यादित कहलाती हैं।
बेटी के लिए आवाज उठाये तो वो घर तोड़ने वाली माँ बन जाती है।
सदी कोई भी हो पिसती सिर्फ एक औरत है।
नमन है ऐसी सोच को और ऐसी सोच रखने वाले लोगों को।