रावण
रावण
नाक कटी थी शूर्पणखा की,लहू हाथों से ठहराया था
पंचवटी में स्पर्श था मेरा जो एक मात्र कहलाया था
सुनकर जुबान बड़बोलों के विवेक जो तेरा खोया था
सीता को अग्नि भेंट कर, कैसे पुरुषोत्तम होया था।
था अहंकारी मायावी, ब्राम्हण कुल का अवतारी मैं
जब जब शास्त्र उठाये, था वानर सेना पर भारी मैं
हूं महाकाल का भक्त, करता अर्पित हूं रक्त मैं
तांडव का खेल जो करते ये, हूं देख इन्हें निःशब्द मैं।
वो पुरुषार्थ था उसका जो जीत पड़ा पर मर्यादा न मेरी कीच पड़ा
वो सिंघासन जो मैं हार पड़ा जब अपने ने ही घाट किया।।
जब बात बहन पर आन पड़ी कैसे सन्ताप को सह पता
था त्रेता का एक तात मैं वो शीश न धड़ पर रह पाता
था मैं अहंकारी निराकारी वो रघुवंश का अवतारी था
इस आदिकाव्य रामायण का वो सर्वश्रेष्ठ धनुर्धारी था
वानर की सेना रखी मानुष सा काम कराया था
कल के ठहरे मानुष तुम सब वानर सा हाल बनाया है
रेकी तो आज भी होती है सीता तो आज भी रोती है
न देख भीड़ में राम को उम्मीद भी अब वो खोती है
वो डरती है तेरी आदत से वो डरती है तेरी नज़रों से
तेरे चाल-ढाल तेरे रंग रुप तेरे कर्म कांड की खबरों से
अब बहुत हुआ पुल टूट चुका
हर राम अब दशरथ से रूठ गया
बस एक हरण है शेष रहा
तेरे चेहरे में जो झूठ छुपा
चल लगी शर्त आ युद्ध करें
आ हवस की गंगा शुद्ध करें
अब हर लक्ष्मण बना विभीषण है
हनुमान की कमी तो भीषण है
अभियांत्रिक तो बहुतेरे हैं
नल नील कहां गए तेरे दो?
ना जाम्बवंत ना अंगद हैं
हाँ सुग्रीव के गृह में रंगत है
ना अब केवट निशाद रहे
अब शबरी ही सारे स्वाद चखे
अब वानरी सेना राख़ हुईं
हर सोच राक्षसी आज भई
हर गली में मन्थरा फैली हैं
बिन सुरसा नदियां मैली हैं
कहीं तू मुझसे आकर जो आज लड़ा
हाँ माना तुझमे पुरषार्थ बड़ा....
तू एक अकेला पावन है पर,
अब हर गली में 10 10 रावण हैं
है शीश एक और आँखें दो
पर नज़रों में हैं सीते 100
वो त्रेतायुग था, मैं हार गया
कलयुग में न जाने क्या हो?