कलयुगी मानव
कलयुगी मानव


लगता था आएंगे, गरीब के दिन सुनकर
"सबका साथ सबका विकास" के नारों को
उड़ कर आ गए प्रवासी बाबू
चलना पैदल ही पड़ा बेचारों को,
महामारी से तो संक्रमित न था
फिर गई मज़दूर की जान क्यूँ है!!
भूखे ही पेट चल दिया मुसाफ़िर
मूकदर्शक आलाकमान क्यूँ है ?
है चमगादड़ का किया धरा सब
ख़तरा है पर भेड़िये गिद्धों से...
इनकी करतूतों के आगे नतमस्तक
राक्षस दैत्य पौराणिक किस्सों के
हैवानियत हैवानों से कम है क्या....
नाहक ही शैतान बदनाम क्यूँ है!!
षडयंत्र रचा जिस मौलाना ने
वो जयचंद उन्मुक्त फ़रार क्यूँ है ?
अब हर दिन तो है छुट्टी का दिन
फिर क्यों नहीं शराब पे चखना होता,
नहीं सजती क्यों महफ़िल यारों की
जब घर ही पे तो है रहना होता
हवा तो आज कल साफ है ना
फ़िर चेहरे पे बांधे रुमाल क्यूँ है!!
अपनी ही करनी पर हे कलयुगी मानव
आख़िर तू इतना हैरान क्यूँ है?