एक सैनिक की कलम से
एक सैनिक की कलम से


कभी तुम ताज तक आ जाते थे,
आज अपने घर में मारे जाते हो।
तुम कितने अजमल भेजोगे,
हर एक को चुन-चुन मारेंगे।
एक सलाह पे मेरी करना गौर,
मत भेजना किसी कसाब को अब
हम खुद ही गाड़ने आयेंगे।
खत्म हो गए असलहा बारूद क्या,
जो उतर आए पत्थरबाजी पे।
खून खौल उठता है हमारा,
तेरी करतूते देख के घाटी मे।
हमदर्दी अलगाववादियों की ये,
एक ढोंग है महज दिखावटी है।
असली चेहरा तो कुछ और ही है तेरा
,
ये चेहरा तो बस बनावटी है।
हम वतन के पहरेदारों में,
न कोई हिन्दू न कोई मुस्लिम
न कोई सिक्ख-ईसाई है।
पर क्या हो गया मेरे देशवासियों को,
क्यों ब्राह्मण-दलित-यादव मे
ही पनपी घनघोर लड़ाई है।
44 वाला मजे उड़ाये
क्यों 80 वाले की मौत आयी है।
आरक्षित नहीं मांगे मेरा देश
क्यों शिक्षितों की कमी आयी है।
और जो आग लगी है न देश मे मेरे
वो इस सिस्टम की ही सुलगायी है।