दो घरों में....
दो घरों में....


कभी कभी मैं कुछ सवालों में उलझ जाती हुँ
क्यों लड़कियाँ बचपन से ही बाँटना सीख लेती है ?
क्योंकि उनको देखा है मैंने चीजें बाँटकर गुड्डे गुड़ियों का खेल खेलना
अपने हिस्से की तमाम चीजें बाँटते हुयी वह बड़ी हो जाती है
अपने हिस्सें का लाड़ प्यार और ज़ायदाद का हक़ भी भाइयों में बँटते हुए देखती है
बचपन से ही बाँटना सीखते हुए वह बँटना भी सीख जाती है
शादी के बाद दोनों घरों में वह बड़ी आसानी से बँट जाती है
मायके की बेटी ससुराल में बहू बन फिर से बँट जाती है
उसके बाद वह ससुराल में बेहिसाब रिश्तों में बँटती जाती है
कभी ननद भाभी तो कभी देवरानी जेठानी के रूप में
जिम्मेदारियाँ और कर्तव्य निभातें हुए वह बँटना नही छोड़तीं
ताउम्र प्यार और अधिकार के बाँटते बाँटते उसे और भी बँटना होता है
पति के गुज़र जाने के बाद एक बार फिर वह दो घरों में बँट जाती है
कभी अपने घर में और कभी बेटे बहू के घर में.......