15 अगस्त
15 अगस्त
15 अगस्त का त्यौहार,
बड़ी धूम-धाम से,
हमारे देश में,
मनाया जा रहा था,
मगर मेरे मन में,
अब भी खुशी का नाम न था,
क्योंकि हमने इस दिन,
आजादी जरूर पाई थी !
मगर वो आजादी भी क्या,
जो अब हमारे पास है,
हर शख्श सोचता है,
आज हम आजाद हैं,
मगर हम, आजाद कहां हैं,
अब भी हम गुलाम ही हैं।
भले ही अंग्रेज चले गये हैं,
फिर भी हम गुलामी की,
जंजीरों में जकड़े हुए हैं,
पहले तो केवल अंग्रेज ही थे,
मगर आज तो चारों ओर,
कई-कई शत्रु हमें कोड़ो से,
पीटते हुए नजर आते हैं।
वे शत्रु हैं, भ्रष्टाचार, चोरी,
भूखमरी, गरीबी, मंहगाई, लाचारी,
जिसकी मार आज हर कोई,
बच्चा, युवा व बुजुर्ग झेल रहा है,
एक गरीब तो इसी दिन रोता है।
वह बेचारा सारा दिन मेहनत है करता,
शाम को मिली उस मजदूरी के,
पैसे का आटा चावल खरीदकर,
चूल्हा जला पेट है भरता,
छुट्टी हो जाने के कारण,
इस दिन उसके घर न तो,
चूल्हा ही जलता है, न पेट भरता,
बेचारा यूँ ही पेट में अपने,
घुटने-घुसैड़ कर सो जाता है।
बच्चे भी रोते-बिलखते पानी पीते,
‘‘अगले दिन खाना मिलेगा‘‘,
इसी आश में सो जाते हैं,
वह गरीब तो इस दिन को,
अपने साल का सबसे ज्यादा,
मनहुष दिन समझता है।
उसकी सारी इच्छाएं, उड़ान,
आसमां में उड़ने की ख्वाहिश,
पेट न भरने के कारण,
धूल चाटने लगती हैं,
आधी रात तक बच्चों की,
दर्दनाक आवाजें कर्णपटल से टकराती हैं।
उसके बाद विचारों की बिजलियाँ,
उसके मस्तिष्क में है कौंधती,
सारी रात करवटों में गुजरती,
सुबह होने पर हाथ मुँह धो,
भगवान का स्मरण कर,
उसी पर आश लगाए,
काम की तलाश में वह युवक,
फिर से निकल पड़ता है।
शाम तक कड़ी मेहनत कर,
कुछ पैसों का जुगाड़ कर,
अपने घर को आता है,
अब की बार ऐसी घड़ी से,
बचने के लिए वह दो पैसे,
जोड़ने की सोचता है,
किसी तरह से करके वह,
कुछ पैसे जोड़ भी लेता है,
मगर कोई आपदा उस पर,
ऐसी टूट पड़ती है कि-
वो पैसे भी उसके लिए,
कम ही पड़ जाते हैं।
मजबूर होकर उस बेेचारे को,
ऋण लेना ही पड़ता है,
अनपढ़ होने की वजह से,
ऋण देने वाला भी उसे,
नौकर बना कर रख लेता है।
इस तरह से कहा जा सकता है,
हम अभी आजाद कहाँ हैं,
मैं आज ये कसम खाता हूँ कि,
उस समय तक आजादी का,
जश्न ही नही मनाऊँगा,
जब तक हर चेहरे पर,
खुशी की लहर न होगी
पूरे होंगे सपने आँखों के,
हर कोई अपने आपको,
एक-दूसरे के बराबर समझेगा,
हर बच्चा पढे़गा-बढे़गा।
कटोरे की जगह उनके हाथों में,
किताबों से भरा बस्ता होगा,
हर घर में चूल्हा जलेगा,
हर घर में रोशनी होगी,
बिमारी किसी के दामन को,
छू तक भी नही पायेगी,
वही दिन बस मेरे लिए,
आजादी के जश्न से बढ़कर होगा।
मैं जानता हूँ कि-
"अकेला चना भाड़ नही फोड़ता"
मगर इस कहावत को,
उल्टा करने की मैं कोशिश करूँगा,
मैंने मशाल उठा ली है-
इन दुष्टों को भगाने के लिए,
जिसको लगे मैं ठीक हूँ,
आये, मेरे साथ कदम बढ़ाये,
अन्यथा इस पथ पर मुझे,
अकेले ही आगे बढ़ना है।
मुझे ये भी पता है कि -
मैं चलते-चलते थक कर,
किसी जगह पर गिर पडूँगा,
मगर मुझे खुशी होगी तब,
जब इस देश से इन शत्रुओं का,
नामोंनिशान मिटाकर,
आराम से धरती की गोद में,
मिट्टी में इसकी सो जाऊँगा।