दुख ही दुख
दुख ही दुख
मेरे जीवन में शायद
ना किनारा पाने वाली
लहरे ही लहरे खाली।
शेष शायद हैं बचीं।
ज्यों लहरें उथली होकर भी
अनायास सिमट जाती हैं,
उनका बेजोड़ संबंध सागर से
दूर भला कैसे जाती हैं।
इसमें ही पैदा होती हैं,
इसमें ही विलीन हो जाती हैं।
कि नारों से ऊपर उठकर भी
वापिस फिर से आ जाती हैं ।
बाहर बिखरे बालू कणों को
वापिस जल में ले जाती हैं।
मखमली दूधिया तन पे ढके
आँचल में भर ले जाती हैं।
और कुछ देने को आतुर हो
अपने अन्दर भरे पड़े
अथाह गहन धन कोष से
शंख सिपियां बिखेर जाती हैं।