ग्रामीण महिला
ग्रामीण महिला
मुद्दतें बीत गईं पर बरसों पुरानी कुप्रथाएँ प्रचलित आज भी हैं,
गाँव में पैदा हो तो गई मैं, पर अभिमान करूँ या अफसोस पता नहीं है ।
जब लोग नसीहत देते हैं जब यह जीवन वरदान है, सोच में पड़ जाती हूँ,
प्रश्न करती हूँ खुद से ही,
क्या ये कथन लागू है मुझ पे भी जिसका जन्मदाता हत्या करने को आतुर था उसकी,
भ्रूण में ही।
भारत की जड़ से जुड़ने का जश्न मनाऊँ या फिर जड़ से काटे जाने की कोशिश का मातम,
ये समझ नहीं आता,
अ आ इ ई पढ़ने की उम्र में मूसल और मसालदान हाथ में पकड़ा के
चूल्हे पर मुझे चढ़ा दिया गया क्यों, ये आज तक समझ नहीं आता।
खुली हवा में स्वेच्छा से बचपन बिताना क्या होता है,
इस मीठे एहसास की अनुभूति होने का आगाज ही हुआ जैसे ही,
अधेड़ उम्र के एक अंजान इंसान के साथ कुड़माई करके कुछ और
बेड़ियों से जकड़ दिया गया मेरे कोमल पैरों को तभी ।
घूँघट की ओट में, दुल्हन के लिबास में, डरी-डरी सी, सहमी-सहमी सी,
कुछ छुपी सी, कुछ दबी सी, बैठी थी हंसने-खेलने की उम्र में,
कभी पति के ताने, सांस-ससुर के नखरे झेलने लगी तो कभी बच्चों के कपड़े बुनने लगी
गुड्डे गुड़ियों से खेलने और नए-नए ख्वाबों के महल बुनने की उम्र में ।
गहनों और भारी परिधानों में कैद हो गई थी जेल में कैद एक मुजरिम की भांति मैं,
गुनाह बस इतना सा था मेरा कि गाँव में एक अभिशाप के रूप में अवतरित कन्या थी मैं ।
पैसे से धनी और जज़्बातों से विमुख सामाजिक परिवेश का एक अनचाहा हिस्सा हूँ मैं,
समझ नहीं आता कि गौरवान्वित हूँ कि मैं एक ग्रामीण नारी हूँ या टूट के टुकड़े-टुकड़े हो जाऊँ
क्योंकि एक ग्रामीण अबला बेचारी बेसहारा नारी हूँ मैं ?
दर्द सँजोया है अनगिनत आंसुओं में अपने मैंने, हंसी में महफ़ूज रखा है अश्रुधारा को मैंने,
मानसिक उत्पीड़न के हर कष्टदायक किस्से को कड़वे घूंट की तरह चुपचाप निगल लिया है मैंने ।
जब-जब खेतों में हल चलाया मैंने, हर सपना ध्वस्त हुआ है, पंखों और उड़ान का मरण हुआ है,
जब-जब चक्की चलायी नाज़ुक हाथों ने, हर अरमान भी स्वतः ही उस चक्की में घुन बन गया है ।
एकाकी रही सदा ही मैं, अब तो खामोशी से दोस्ती सी हो गई है मेरी,
बिना एहसान जताए कोई, मेरी दर्द भारी चीखें लील लीं उसने, वास्तव में वही सच्ची साथी है मेरी ।
शहर की लड़कियां देखी हैं मैंने, उनका रहन-सहन देख के यकीन होता है कि
औरत भी समाज का एक अभिन्न हिस्सा है,
उनके रंग बिरंगे परिधान और स्वतंत्र जीवन प्रसन्नचित्त कर देते हैं, उन्हीं के जैसा हो जाने को जी करता है ।
आवाज़ उठाने की आज़ादी है उनके पास, विचारों की अभिव्यक्ति जो कर सकती हैं खुले-आम ,
चक्की की भांति कुछ रहता तो है उनके हाथों में, पूछो तो कार का स्टीरिंग बतलाती हैं उसका नाम ।
जब नौकरी करने जाती हैं वो,पुरुषों के साथ कंधे से कंधा मिला के चलती हैं वो,
प्रगतिशीलता का परिचय देते हुये मेरे मन के पर्दे पर स्पंदन कर एक प्रश्न छोड़ जाती हैं वो,
कि क्या ऐसी आज़ादी की अनुभूति होगी मुझे भी कभी, जिसे हर श्वास में अपनी पल-पल जीती हैं वो।
यद्यपि गाँव की शीतलता बहुत भाती है, पर शिथिलता यहाँ की अखरती है,
शहर में हर पल तीव्रता से सरपट दौड़ती ज़िंदगी यहाँ आ कर बेजान सी ना जाने क्यों हो जाती है ?
सुना है आधुनिक युग का पदार्पण हो चुका है, कहीं ये अतिशयोक्ति तो नहीं ?
सुना है लोग नारी दिवस भी धूमधाम से मनाते हैं, ये कोई खयाली पुलाव तो नहीं ?
मुझे भी सभ्य संसार का हिस्सा होना है, गाँव की संस्कृति से जुड़े रहना है पर शहर की
नूतनता का स्वाद भी चखना है,
सब बंधनों से आज़ाद होकर मुझे भी खुले आसमान में पंख पसारे उड़ना है ।
हाँ गाँव की महिला हूँ मैं, पर गंवार मैं नहीं हूँ ये समाज को समझाना है,
घूँघट में छुपी भले ही हूँ मैं पर कमतर मेरे ख्वाबों को ना आंकना ये सबको बतलाना है।
शिक्षा का हक है जैसे सभी महिलाओं को शहर में,वही हक हर ग्रामीण महिला को भी दिलाना है,
गाँव की महिला हूँ भले ही मैं, पर आधुनिक मुझे भी कहलवाना है ।
चूल्हे चौके में सिमटी थी अब तक, अब मुझे भी उड़ जाना है,
क्यों मैं कैद रहूँ चारदीवारी में, दुर्व्यवहार और अत्याचार अब ना सहूँगी, अब मैंने भी ये ठाना है ।
भ्रूण हत्या कर देते हैं जो, मुझसे पैदा होने का हक चीन लेते हैं, उनको अवगत कराना है,
अब खुद को बेचारी ना कहने दूँगी, गाँव की भले ही हूँ पर आधुनिक युग की शिक्षित,
सर्वसंपन्न और सशक्त ग्रामीण महिला हूँ मैं, ये उनको समझाना है, भली-भांति बतलाना है ।