किताबों की धूल
किताबों की धूल
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कभी बेबाक मिजाज़ की हुआ करती थी।
शब्दों की राजकुमारी बुलाते थे मुझे।
कौन सी कविता जो छुई नही मैने,
दिल से दरिया तक पार कर लिया।
लेकिन कल का आज किसने देखा।
शब्दों से परे थी मेरी हाथ कि रेखा।
जो धूल किताबो से हटानी थी,
वो जिद्दीपन में सिमट के रह गई।
और मैंने बेबाकी को कोसो दूर छोड़
शर्म को अपने गले से लगा लिया।
ना किताबें रही ना कहानियां।
रह गई तो सिर्फ बेइमानियाँ