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Sonali Ghosh

Abstract Fantasy

4  

Sonali Ghosh

Abstract Fantasy

एक शाम सुहानी सी

एक शाम सुहानी सी

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एक सुहानी शाम में 

कच्ची सीढ़ियों पे बैठे बैठे 

सुहानी ने ये सोचा की ….


"शाम भी है और दस्तूर भी,

मन में है ख्यालों का सुरूर भी,

गोद में है कोरे पन्ने और हाथों में खुली कलम,

आज कुछ लिख भी दो, कह रहा है मेरा ज़हन"


तो लगा ये ख्याल बड़ा अच्छा है,

पर दिमाग तो अभी कच्चा है,

लेकिन उसे लिखने में क्या डर

जो सबसे ज़्यादा सच्चा है


पर वो है क्या ?

अरे पगली ! 

ज़्यादा दिमाग मत लगा 

सर को उठा और आखों को 

चारो ओर घुमा, पहले पढ़ डाल

जो भी नज़रो के सामने है,

फिर शब्दों को इकठ्ठा कर 

कहानी का जाल बुनती जा


ऐसे क्या देख रही है और अब 

क्या सोच रही है? चल कलम उठा 

और लिख डाल, लिख डाल की…


" ये रूहानी सी सुहानी शाम का 

धीरे धीरे ढलना,

हरे भरे पेड़ो के पत्तो का जी भर 

के मचलना,

उड़ती चिड़ियों का चहचहाना और 

कोयल का गुनगुनाना,

फिर मनमौजियों की तरह एक शाख 

से दूसरे शाख पर बैठ जाना,

आज़ाद हवाओं का मुझको यूँ ठंडक 

पहुंचना, हाय!"


ये सब …..

सुहानी को बहुत ही अच्छा लगता है

ये वक़्त सबका है फिर भी अपना सा लगता है

शायद ये सच ही प्रेरणा है लिखने की,

और ये सच इतना खूबसूरत है की सपना 

सा लगता है 


तो लो फिर क्या …

लिख दिया 

कर दिया 

सुहानी ने 

इन कोरे पन्नों पे..

आज की शाम 

सुहानी के ख्यालों 

के नाम।


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