विवाह
विवाह
कहते हैं
विवाह मिलन है
दो आत्माओं का
पर नहीं
आज परिभाषा
बदल चुकी है
मिलन नहीं बंधन है
वह भी सिर्फ औरत का
बांध दिया जाता है उसे
पायल की जंजीरों से
चूड़ियों की हथकड़ी से
ताउम्र चारदीवारी की कैद में
काम के बदले दिया जाता है
दो समय का दाना पानी
रौंदा जाता है
उसके अंग-अंग को
परिवार की बैलगाड़ी में
जोत दिया जाता है
चलती है सिर्फ
मालिक के इशारे पर
उसके अरमानों को
कुचल दिया जाता है
किसी भी काम को
करने से पहले
वह सिर्फ देखती है
अपने मांग के सिंदूर को
माथे की बिंदिया को
गले में पड़े फांसी के फंदे से
मंगलसूत्र को
अब प्रश्न उठता है
यह विवाह किसका
और किसके लिए है
औरत को पिंजरे में
बंद कर
गुलाम बनाने के लिए
आज कलयुग में
आत्माओं से अधिक
शरीर ही मिलते हैं
वह भी औरत की
इच्छा के विरुद्ध
पंख काट कर उसे
कैद कर दिया जाता है
पिंजरे में
इसी को दिया है नाम
विवाह का
हमने-तुमने
और समाज ने।