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Nisha Nandini Bhartiya

Abstract

4.6  

Nisha Nandini Bhartiya

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मैं खिलौना हूँ उसका

मैं खिलौना हूँ उसका

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298


गीत- मैं खिलौना हूँ उसका

                                                      

मैं खिलौना हूँ उसका 

खेल रहा वो मुझसे खेल।

रात-दिन नचा-नचा कर

देख रहा जीवन की रेल।


एक मुसाफिर आया जग में 

धन पर लगा हाथ सेंकने।

भूल कर वो कर्म गति को 

भाग्य को फिर लगा कोसने।

दुख आने पर रोया गया 

कर्म योग को समझ न पाया। 

मैं खिलौना हूँ उसका 

खेल रहा वो मुझसे खेल।

रात-दिन नचा-नचा कर

देख रहा जीवन की रेल।


जिस देह का मोह है तुझको

वो काया तो नश्वर है। 

आत्मा के संस्कार की

पूंजी शाश्वत उज्ज्वल है। 

ढेला ढेला जमा रहा तू

ज्ञान योग को समझ न पाया। 

मैं खिलौना हूँ उसका 

खेल रहा वो मुझसे खेल।

रात-दिन नचा-नचा कर

देख रहा जीवन की रेल।


अंत समय तू पछताएगा

तिनका तक न ले जाएगा।

संगी साथी तेरे अपने

छूट जायेंगे सारे सपने 

तू डूबा था भौतिक सुख में 

भक्ति योग को समझ न पाया।

मैं खिलौना हूँ उसका 

खेल रहा वो मुझसे खेल।

रात-दिन नचा नचा कर

देख रहा जीवन की रेल।



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