परिवार का चूल्हा
परिवार का चूल्हा
परिवार का चूल्हा,
मात्र प्रेम की अग्नि से नहीं चलता,
ईंधन भी माँगता है।
कर्तव्य की लकड़ियाँ आवश्यक हैं,
चूल्हे के जलते रहने के लिए।
कभी कभी त्याग का घी-तेल,
भी डालना होता है,
और व्यवहारिकता की फुँकनी से,
समझौते की हवा भी फूँकनी होती है।
असुविधाओं का धुँआ सहन करते हुए।
ध्यान रहे कि कर्तव्य की लकड़ियों में,
आँसुओं की नमी न हो।
अन्यथा चूल्हा ठीक नहीं जलेगा।
और घर का धुँआ,
आस-पड़ोस तक में फैल जायेगा।
अपने घर की चुगली करता हुआ।
और पडोसी कुछ सकारात्मक नहीं करते।
न तो कर्तव्य की सूखी लकड़ी दे सकते हैं
और न त्याग का घी-तेल।
वो तो असुविधाओं का धुँआ भी सहन नहीं करेंगे।
मात्र सांत्वना दे सकते हैं।
परन्तु वो भी झूठी,
हो सकता है की कुंठा की धूल,
या उत्तेजना का पानी भी डाल दें।
आपके चूल्हे से निकलते धुंए को बंद करने,
यदि ऐसा हुआ तो,
किंचित स्वयं को भी लगे
कि अब सब ठीक है।
पर बुझा हुआ चूल्हा,
कैसे ठीक हो सकता है।
परिवार समाज की इकाई है,
और समाज सभ्यता की।
परिवार का चूल्हा बुझेगा,
तो सभ्यता का यज्ञ भी रुक जायेगा।
तो आवश्यक है,
परिवार के चूल्हे का जलना।
प्रेम, कर्तव्य, त्याग, समझौते, व्यवहारिकता के साथ,
अनवरत ….