कड़वी सच्चाई
कड़वी सच्चाई
पतझरों की बहार में
अश्कों की धार में, दर्द की कतार में
हम उजड़े से, दूर दुनियां से, अकेले अकेले
श्मशान में जलते शवों के मध्य
भीषण धूप और सन्नाटों में
सूनी आँखों में, तपती लू के थपेड़ों में
शून्य खड़े जडवत, ढूंढतें हैं मौत को
चिता में किसी अपने को
पागल, दीवाना हूं, क्या हूं
स्वप्न है या वास्तविकता
जो जी रहे हैं यह जीवन
तो मौत क्या है
धोखा दे रहे हैं या खा रहे हैं
हमें भी जलना है, मुर्दा हैं
मुर्दों से क्या नाता
हंसी झूठ है, तभी तो हंसने वाला रोता है
क्या कुछ खोता है
यह जीवन एक युद्धस्थल
हर एक की हुई बलि
विभिन्न रूपों में, नामों में
मौत की खबर नहीं
कैसे करें यकीन
दूसरों को देखते, रखते खबर
तो बनते ढोर ढंगर
जिंदगी देती है आघात
ऊँच नीच, जात पात
लाभ को करते हैं घात
जी रहे हैं साथ, जाना है एक स्थली
फिर भी जिसने पाई जिंदगी
मचा रहे हैं उत्पात
नशा है जिंदगी, कैसे करें विश्वास
सन्नाटा, अकेला, अंधेरा
जलते शवों के अवशेष
मैंने न सोचा, क्या रहा शेष
शरीर का भेष, अतृप्त आत्मा, दुर्बल काया
मानव ने क्या पाया
अपना, अपनों ने जलाया
क्या बैरी, विश्वासघात
नहीं, यही है रीत, कड़वी सच्चाई
फिर भी जीने की ललक
हर एक में पाई।