मन में
मन में
मरोड़ सी उठ रही है मन में
कुछ टूटकर बिखर रहा है
चटक कर चकनाचूर हो रहा है मन
विक्षिप्त सी स्थिति है
घोर संकट, अपमान, निराशा,
असफ़लता के दौर से पीड़ित मन
रो रहा है रक्त के आंसू
नहीं कहीं सुकून न चैन है
बस रह रहकर उदासी छा जाती है
किरचें चुभ रही हैं जैसे कोई कांच का टुकड़ा
हर बार हार हर बार निराशा
टूटती जाती है रोज एक उम्मीद
छूटता जाता है रोज कुछ न कुछ
मरता है अंदर ही अंदर कोई
खून के धब्बे फैल गए हैं मन के भीतर
और एक श्मशान भरा सन्नाटा
एक रिक्तता और खुद से उबा हुआ
पानी में सड़ गई हो जैसे कोई लाश
हर बार यही होता है
अंत तक आते आते मार डालता है कोई
और अपनी ही मौत पर घुटी घुटी आवाज में
रोता है कोई मन के अंदर.
