पुष्प और नारी
पुष्प और नारी
वो अपने भावों में गुमसुम,
थी उपवन में शांत खड़ी l
देखा जो इक सुमन सुकोमल,
अनायास ही बोल पड़ी l
तुम शोभा हो उपवन की,
तुम सामग्री पूजन की,
यही तुम्हारा कार्य सुमन
यही है नियति जीवन कीl
विमल मनोहर पंखुड़ियां,
आकर्षण का केंद्र बनें l
बिखरा दो इतना सौरभ,
प्रमुदित नर सुख भोग सकें l
विचलित हो ना जाना तुम,
बूंदों के आघात से l
रवि किरणें जब चुमेंगी,
दमक उठेगा गात ये l
हो प्रहार जब कीटों
का
शांत, मौन हो सह लेना l
तुम को यह अधिकार नहीं,
पाकर कष्ट व्यथित होना l
जीवन के अंतिम क्षण में तुम,
बीजों का निर्माण करोगे l
मुझ से हो उत्पन्न अनेकों,
कहते - कहते मुरझाओगे l
उसकी इन बातों को सुनकर,
बड़ा अचंभित पुष्प हुआ l
रमणी, कैसे ज्ञात तुम्हें,
ये तो है मेरी पूर्ण व्यथा l
वह बोली, बंधु इस पीड़ा की,
मैं भी सहभागी हूँ l
अन्तर हममें मात्र यही है
तुम हो पुष्प..., मैं नारी हूँ..... ll