मन की ध्वनि
मन की ध्वनि
मुठ्ठी में धूप की किरणे
झांकती है उंगलियों के पोरों से
धूप छांव सी...
कोलाहल से दूर
कहीं तो होगी
मन की ध्वनि?
सुनने आऊंगी,
सुना है, आकाश,धरती और बादल
रूपक के पात्र होंगे
धूप से रचेगा मंच
हवा से सजेगी सुरों की बेला
होगा ऐसा रंगमंच का खेला
सब अपने किरदार में होके भी
होंगे एक दूसरे में तल्लीन
ना होगी धूप छांव की आंख मिचौली
ना कोई कोलाहल सा अतीत
निष्तब्ध हो जाऊंगी वहीं मै!
वहीं गूंजे की मन की ध्वनि।
