स्निग्ध संध्या
स्निग्ध संध्या
जीवन के हर पल में
तुम रहना स्निग्ध संध्या बन के
जब, उतरेगा तम अम्बर से
शीतल तन तुम ओढ़ा देना
जब हो मौन आवाज़ मेरी
तुम बन स्वर गगन में गूंजना
तुम मेरी यादों को संजो के
एकांत को हर लेना
वो व्याकुल मन का अनुरागी
अरूनाई होगा वहीं आकाश तले कहीं,
स्पर्श में, भाव में, प्रेम- प्राण में
प्रतीक्षा में झुकी हुई यह नीरव रात्रि
हृदय में फिर प्रभात बेला ले आयेगी।
वियोग कृंदन में, प्रेम अपेक्षा में
तुम मुझ को सदैव जीवंत रखना...
जीवन के हरपल में
तुम रहना स्निग्ध संध्या बनके।।