अलौकिक अनुभूति
अलौकिक अनुभूति
जिस्म से परे
आँखें मूँदे मनचक्षु से
शून्य में
जब तुम्हे निहारूँ मैं
तब एक पावन रोशनी
प्रकट हो तुमसे
जो मेरी रूह के
शून्य से एकाकार हो कर
प्रेम से बहाकर ले जाए
समय और स्थान से परे हमें
एक अलौकिक दुनियाँ में
जहां दो शून्य एक होकर
हद और बेहद की
सीमा लांघ कर
दुई का भेद मिटा दे
बस खो जाए
साक्षी बन देखते रहे
जब मन और शरीर
एक दूसरे की
इश्क ए इबादत को
तब उस अमन की स्थिति में
जो घटित हो
मौन समाधिस्थावस्था
उसे बयान ना कर
पाए कोई अल्फ़ाज़
बस इतना ही कहूँ
कि उस अलौकिक अनुभूति में
बहते बीतें सदियाँ
दो प्यासी रूहों का संगम रचे
मिलन का मंज़र ऐसा हो की
कभी जुदा न हो
काफ़ी है ये अहसास
मेरे जीने के लिए।
